हर बार नया चेहरा / राजेन्द्र किशोर पण्डा / संविद कुमार दास
हर बार मैं खटखटाता हूँ ग़लत दरवाज़ा
ढूँढ़ता हूँ किसी को,
मिलता है कोई और ।
बगुले की तरह मैं गाँव-गाँव नगर-नगर
मुहल्ला-मुहल्ला गली-गली में,
दरवाज़ों की झिरियों से झाँकता हूँ,
हर बार नए-नए चेहरे दिखते हैं
मेरे खटखटाने के बाद दरवाज़ा खुलने पर ।
हर बार नया चेहरा,
दोबारा मैं देख पाता नहीं किसी चेहरे को
किसी भी ठिकाने पर ।
भरी आबादी में मानो मुझे वन घेर लेता है,
कुंज की ओट से दिखता है अधखुले पत्थर का दरवाज़ा ―
खुल जाने से गुफ़ा :
फिर से एक नया चेहरा ।
गोरा काला लाल हरा नीला पीला
कभी सिंदूरित देवों-सा...
कभी कच्चा-कच्चा 'ले लो' का भाव...
कभी परिणत कभी सुकुमार...
दूर-दूर सदा पराया-सा
दरवाज़ों की झिरियों में चेहरा और
उस चेहरे पर मृदु कुतूहल ।
इस तरह भटके हुए रहने से बहुत सुख !
एक नज़र, बस, कितना सुख, कितना सुख !
ऐसी भटकन में
कौन फिर लौटेगा प्रसिद्ध परिचय की यातना में
अपने संसार के शत्रु-शिविर में ?
भला अनजान के साथ कभी शत्रुता हो सकती है ?
क्षणिक पूर्वराग में
आरम्भ और अन्त !
तारे और फूल और कंकड़ और बीज पकड़
मानो मैं बिखेर रहा हूँ
जनपथ, राजपथ गली और संकीर्ण पथों पर...
मानो मेरा साया भी और पड़ नहीं रहा
शून्य पर भूमि पर...
यह बात भी संभव कि मैं और नहीं हूँ यहाँ
इह जीवन में,
बस, मेरे एक बार के खटखटाने से
साल-दर-साल
खटखटाहट होती जा रही है प्रतिध्वनि की तरह
इस दरवाज़े उस दरवाज़े ―
बेशुमार बन्द दरवाज़ों पर !
मूल ओड़िया से अनुवाद : संविद कुमार दास