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हर बार / वीरा
Kavita Kosh से
बहुत बार
तड़कता है इरादा
बहुत बार
टूटती है हिम्मत
बहुत बार
उधेड़ती है यातना
और
फिर भी
हर बार
उसी इत्मीनान से हम
ख़ून में से काँटें
बीन-बीन कर फेंकते हैं
सपनों की लहलहाती
फ़सल की
रखवाली करते हुए।
(रचनाकाल : 1977)