भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हर लम्हा इस मन में इक तस्वीर यही तो सजती है / गौतम राजरिशी
Kavita Kosh से
हर लम्हा इस मन में इक तस्वीर यही तो सजती है
तू बैठी है सीढ़ी पर, छज्जे से धूप उतरती है
एक सवेरा इक तन्हा तकिये पर आँखें मलता है
मीलों दूर कहीं इक छत पर सूनी शाम टहलती है
एक हवा अक्सर कंधे को छूती रहती "तू" बनकर
तेरी गंध लिये बारिश भी जब-तब आन बरसती है
हमने देखा है अक्सर हर पेड़ की ऊँची फुनगी पर
हिलती शाख तेरी नजरों से हमको देखा करती है
यादें तेरी, तेरी बातें साथ हैं मेरे हर पल यूँ
इस दूरी से लेकिन अब तो इक-इक साँस बिखरती है
सात समंदर पार इधर इस अनजानी-सी धरती पर
ज़िक्र से तेरे मेरी ग़ज़ल थोड़ी-सी और निखरती है