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हर शाम जलते जिस्मों का गाढ़ा धुआँ है शहर / अज़ीज़ क़ैसी
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हर शाम जलते जिस्मों का गाढ़ा धुआँ है शहर ।
मरघट कहाँ है कोई बताओ कहाँ है यह शहर ।
फुटपाथ पर जो लाश पड़ी है उसी की है,
जिस गाँव को यकीं था की रोज़ी-रसाँ है शहर ।
मर जाइए तो नाम-ओ-नसब पूछता नहीं,
मुर्दों के सिलसिले में बहुत मेहरबाँ है शहर ।
रह-रह कर चीख़ उठते हैं सन्नाटे रात को,
जंगल छुपे हुए हैं वहीं पर जहाँ है शहर ।
भूचाल आते रहते हैं और टूटता नहीं,
हम जैसे मुफ़लिसों की तरह सख़्त जाँ है शहर।
लटका हुआ ट्रेन के डिब्बों में सुबह-ओ-शाम,
लगता है अपनी मौत के मुँह में रवाँ है शहर ।