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हर हर्फ़-ए-आरज़ू पे करे था वो यार बहस / 'ममनून' निज़ामुद्दीन

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हर हर्फ़-ए-आरज़ू पे करे था वो यार बहस
एक एक बात पर थी उसे शब हज़ार बहस

लाए है खींच आरज़ू-ए-ज़ख़्म दूर से
कहो वार पर न क़ातिल ख़ंजर-गुज़ार बहस

हैरत-ज़दों को महफ़िल-ए-तस्वीर की तरह
ने है शिआर-ए-रम्ज़-ओ-किनाया न कार-ए-बहस

या ज़िक्र-ए-दोस्त या है ज़बाँ पर हदीस-ए-इश्क़
जूँ अहल-ए-मदरसा नहीं अपना शिआर बहस

तकरार से दिल अपना जो माँगा कहा कि चल
मिलता है कोई ये न अबस बार बार बहस

कीजे अगर गिला तो तरफ़-दार यार हो
आप ही लगाए मुझ से दिल-ए-बे-क़रार बहस

‘ममनूँ’ मुझे नसीहत-ए-साइब ये याद है
ता सुल्ह मुमकिन अस्त मकुन ज़ीन्हार बहस