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हलौळ / ओम नागर
Kavita Kosh से
अस्यां तो कस्यां हो सकै छै
कै थनै क्है दी
अर म्हनै मान ली सांच
कै कोई न्हं अब
ई कराड़ सूं ऊं कराड़ कै बीचै
ढोबो भरियो पाणी।
कै बालपणा मं थरप्यां
नद्दी की बांळू का घर-ऊसारां
ढसड़ग्यां बखत की बाळ सूं
कै नद्दी का पेट मं
न्हं र्ही
अब कोई झरण।
होबा मं तो अस्यां बी हो सकै छै
कै कुवां मं धकोल दी होवै थनै
सगळी यादां
तज द्यो होवै
लोठ्यां-डोर को सगपण।
अस्यां मं बी ज्ये
निरख ल्यें तू
ऊपरला पगथ्यां पै बैठ’र
आज बी
कुवां को बच्यों-खुच्यों अमरत
तो अेक-अेक हलौळ
थांरा पगां को परस पा’र
हो जावैगी धन्न।