भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हवस की आँख सीं वो चेहरा-ए-रौशन न देखोगे / 'सिराज' औरंगाबादी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हवस की आँख सीं वो चेहरा-ए-रौशन न देखोगे
तो चेहरा तो कहाँ पन-गोशा-ए-दामन ने देखोगे

छुपाते हो सो बेजा उस जमाल-ए-हैरत-ए-अफ़ज़ा कूँ
मिरी आँखों सीं देखोगे तो फिर दर्पन न देखोगे

अगर उस ख़ुश-दहन के लब पे देखो रंग मिस्सी का
तो फिर ज़िन्हार बर्ग-ए-ग़ुँचा-ए-सोसन न देखोगे

अगर देखोगे अक्स उस ख़त का मेरी चश्‍म-ए-गिर्यां में
लब-ए-जू पर बहार-ए-सब्ज़ा-ए-गुलशन न देखोगे

‘सिराज’ अपने सीं क्यूँ विसवास है ऐ शम्अ-रू तुम कूँ
किसी आशिक़ कूँ तुम माशूक़ का दुश्‍मन न देखोगे