हवाओं के सम्भलने की शिलाओं के पिघलने की
तमन्ना आज फिर जागी मुक़द्दर के बदलने की
हुई हैं देह से अनबन सुलगती साँस की जबसे
वो जिद-सी ठान बैठी हैं न उसके साथ चलने की
शिकायत आज सूरज से करेंगे सोच रक्खा हैं
के आदत धूप की अच्छी नहीँ हैं सर पर चढ़ने की
चलो इक राह मिल कर आज फिर से हम बनायेंगे
दुआएँ साथ लेकर के उमीदों के गुजरने की
जगा के नींद से मुझको मिरी क़िस्मत ये कहती हैं
कभी तो कोशिशें कर लें तू मेरे भी सँवरने की
हजारों ख़्वाब आँखों में शरारों से चमकते हैं
दियों को क्या ज़रूरत थी हवाओं से उलझने की