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हवा के ख़िलाफ़ चिड़िया / ज्ञान प्रकाश चौबे

हवा जब भी
डैनों के खिलाफ़ रहती है
चिड़िया पंखों को समेटकर
फेफड़ों में पूरी साँस भरती है
लड़ती है उड़ती है
खिलाफ़ रहती है हवा के

सबकुछ वैसा नहीं होता कभी
जैसा चाहती है चिड़िया
और न वैसा
जैसा की चाहती है नदी
और चाहता है जंगल
किसी भी धुँधलके शाम में
या कि चमकती सुबह में

चिड़िया तलाश रही है
अपना बाग पेड़ डाल घोंसला
तलाश रही है अपनी दुनिया
शाम के पीछे छुपे अन्घेरे को देखती हुई

चिड़िया के पंखों पर
उड़ते बादलों के फाहे
और थोड़ी-सी खिली धूप है
वो चुनती है तिनका
तिनकों से बुनती है दुनिया
उजाले से भरी सुबह
खिलखिलाती सुबह
एक के बाद एक टाँकती है चिडिया
अपने घोंसले में

हवा के खिलाफ़ रहते हुए
चिड़िया समय का गीत गाती है
उसकी लाल चोंच
टिमटिमाती रोशनी है भोर के तारे की
और उसके दुमछल्ले पर
पूनम का अटका हुआ चाँद है
अन्धेरे के खिलाफ़ लड़ते हुए