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हवा के झोकों में मद्धम-सी सरसराहट है / कुमार अनिल
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हवा के झोंको में मद्धम सी सरसराहट है
ये कौन आता है,किसके पगों की आहट है
नदी ये जाती है सागर से अपने मिलने को
अधर पे गीत हैं , कदमो में लडखडाहट है
वो शख्स सो तो गया खाली पेट ही लेकिन
उदर में घुटने हैं, पलकों में कसमसाहट है
हमारी पीढ़ी है मुर्दा अगर तो फिर यारो
हमारे खून में ये कैसी सनसनाहट है
ये देश सौंप दिया हमने उनको, जिनके लिए
धर्म, ईमान कुछ सिक्कों की खनखनाहट है
कोई भी पीर नहीं अनछुई रही हमसे
ये बात और है अधरों पे मुस्कराहट है
तुम्हारा गीत 'अनिल' छू गया उन्हें शायद
फिजां में गूँजती परिचित सी गुनगुनाहट है