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हवा पानी और माटी / राजा अवस्थी
Kavita Kosh से
जब कभी होकर
पुराने गाँव से निकले,
लबादे अभिजात्यता के
गिर गये फिसले।
हवा, पानी और माटी
प्रकृति, मानुष, दाल-बाटी,
धुल गये मन में;
विविध वर्णी पुष्प पर्णी
सौम्य-शुचि शुभ गन्ध भरणी
खुल गये मन में;
वंदना के स्वर स्वतः ही
कण्ठ से निकले।
अँधेरे अंतःकरण के
हठ हठीले आचरण के
दहकते जलते;
वेदना के शिखर कबके
राग ठिठके हुये दुबके
युगों से पलते;
गुनगुनी अनुभूतियों की
छुअन पा पिघले।