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हवा में कीलें-1 / श्याम बिहारी श्यामल
Kavita Kosh से
अक्षर-अक्षर हिलते हैं
हिल-हिलकर सटते हैं
और छिटकती है चिनगारी
शब्द दहक रहे हैं
पुट्ठे पर घाव बनकर
जली जा रही है त्वचा
मैं पीड़ा से परेशान हूँ
चिल्ला रहा हूँ
तड़प रहा हूँ
सामने आँखों में गुर्रा रहे हैं
मुलायम ख़ूबसूरत रोएँवाले
जोड़ी भर आँखों में रोमांच भरे भेड़िये
जो गुर्रा रहे हैं
और बैठे हैं घात लगाकर
हमले के लिए
मन सुनसान होकर
बनता जा रहा है
अँधरे में गुम बेहरकत
काला जी.टी. रोड
लम्बा-चौड़ा और निर्जन
चीलों का उत्सव
गिद्धों का पर्व
चीटियों के महाभोज के दिन
मैं अलीगढ़ हूँ
ख़ून उगल रही है मेरी
लहूलुहान देह
मैं हैदराबाद हूँ
जुती हुई है मेरी पीठ
मैं फ़ैजाबाद हूँ
अयोध्या हूँ
देख लो मेरी समूची देह पर
ख़ूनी पंजों के निशान
रक्त से सिक्त