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हवा में कीलें-5 / श्याम बिहारी श्यामल
Kavita Kosh से
एक ने पकड़े
सटाकर चारों पाँव
एक ने दबोचा पेट
ऐंठते हुए बीत्ते भर की पूँछ
...और होने लगा ज़िबह
इत्मीनान से बकरा
चाकू से छीला गया चाम
काट-काटकर धोए जाने लगे
माँस के लोथड़े
सज गई दौरी
टाँग दिया गया
अधकटी गोड़ी में फँसाकर
चामछुड़ा आधा बकरा
मैं थर्राता हूँ
इस बैशाख की
लपलप दुपहरी में भी
काँपता हूँ
मुझे तेज़ी से
याद आ रहा है गाँव
और बैठता जा रहा है
मेरा कलेजा
पान कचरे
चौड़े होठों, गंदे दाँतों वाले
झकझक सफ़ेद कपड़े पहने
कस्साई या कि कहूँ जल्लाद से
मैं भयभीत हो चला हूँ
इच्छा हो रही है
कि मैं शोर मचा दूँ
और जमा करके भीड़
बचा लूँ
अपने गाँव को