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हवा सागै सागो / हरीश बी० शर्मा

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गोधूळी वेळा
जद सूरज आपरै घरां जावै
चंदरमा आभै आवण नैं
कसमसावै
अर एक....दो.....दस-बीस..... पचासूं
तारा खिंड जावै
लटक जावै
बीं वेळा
रिंधरोई में बैठो
तपती बेळू नैं ठंडी हुंवती, सेंवतो
आस लगावै
सूरज काल फेरूं आसी
आभो फेरूं तपसी
मेघ बरस रे
अबकै बरस तो बरस
सोचतो-सोचतो
बळध जोड़‘र गाडै में
गांव री हवा सागै
सागो कर लेवै।