हसज कूजा-ग़र (1) / नून मीम राशिद
जहाँ-ज़ाद
नीचे गली में तेरे दर के आगे
ये मैं सोख़्ता-सर हसन कूज़ा-गर हूँ !
तुझे सुब्ह बाज़ार में बूढे़ अत्तार यूसुफ
की दुकान पर मैंने देखा
तो तेरी निगाहों में वो ताब-नाकी थी
मैं जिस की हसरत में नौ-साल दीवाना फिरता रहा हूँ
जहाँ-ज़ाद नौ साल दीवाना फिरता रहा हूँ !
ये वो दौर था जिस में मैंने
भी अपने रंजूर कूज़ों की जानिब
पलट कर न देखा
वो कूज़े मेरे दस्त-ए-चाबुक के पुतले
गिल ओ रंग ओ रोग़न की मख़्लूक-ए-बे़-जाँ
वो सर-गोशियों में ये कहते
हसन कूज़ा-गर-अब कहा हैं ?
वो हम से ख़ुद अपने अमल से
ख़ुदा-वंद बन कर ख़ुदाओं के मानिंद है रू-ए-गरदाँ !
जहाँ-ज़ाद नै साल का दौर यूँ मुझ पे गुज़रा
कि जैसे किसी शहर-ए-मदफ़ून पर वक़्त गुज़रे
तग़ारों में मिट्टी
कभी जिस की ख़ुश्बू से वरफ़्ता होता था मैं
संग-बस्ता पड़ी थी
सुराही ओ मीना ओ जाम ओ सुबू और फ़ानूस ओ गुल-दाँ
मेरी हेच-माया मईशत के इज़हार-ए-फ़न के सहारे
शिकस्ता पड़े थे
मैं ख़ुद मैं हसन कूज़ा-गर पा-ब-गिल-ख़ाक-बर-सर ओ बरहना
सर-ए-चाक ज़होलीदा-मू-सर ब--जान
किसी ग़म-जादा देवता की तरह वाहिमा के
गिल विला से ख़्वाबों के सय्याल कूजे बनाता रहा था
जहाँ-ज़ाद तो साल पहले
तू नादाँ थी लेकिन तुझे ये खबर थी
के मैंने हसन कूजा-गर ने
तेरी काफ की सी उफुक ताब आँखें
में देखी है वो ताब-नाकी
कि जिस से मेरे जिस्म ओ जान अ्रबू महताब का
रह-गुज़र बन गए थे
जहाँ-ज़ाद बग़दाद की ख़्वाब-गूँ रात
वो रूद-ए-दजला का साहिल
वो कश्ती वो मल्लाह की बंद आँखें
किसी ख़स्ता-जाँ रंग बार कूजा-गर के लिए
एक ही रात वो कहरूबा थी
कि जिस से अभी तक पैवस्त उस का वजूद
उस की जाँ उस का पैकर
मगर एक ही रात का शौक़-ए-दरिया की वो लहर निकला
हसर कूजा-गर जिस में डूबा तो उभरा नहीं है !
जहाँ-ज़ाद उस दौर में रोज़ हर रोज़
वो साख्ता-बख़्त आ कर
मुझे देखती चाक पर पा-बा-गिल सर-ब-ज़ानू
जो सालहा-साल जीने का तन्हा सहारा रहा था
हसन कूजा-गर होश में आ
हसन अपने वीरान घर पर नज़र कर
ये बच्चों के तन्नूर क्यूँकर भरेंगे
हसन ऐ मोहब्बत के मारे
मोहबात अमीरों की बाज़ी
हसन अपने वीरान घर पर नज़र कर
मेरे कान में ये नवा-ए-हज़ीं यूँ थी जैसे
किसी डूबते शख़्स को ज़ेर-ऐ-गिर्दाब कोई पुकारे !
वो अश्कों के अम्बार फूलों के अम्बार थे हाँ
मगर मैं हसन कूज़ा-गर शहर-ऐ-औहाम के उन
खराबों का मज़जूब था जिन
में कोई सदा कोई जुम्बिश
किसी मुर्ग-ए-पर्रां का साया
किसी ज़िंदगी का निशां तक नहीं था !
जहाँ-ज़ाद में आज तेरी गली में
यहाँ रात की सर्द-गूँ तीरगी में
तेरे दर के आगे खड़ा हूँ
सर-ए-मू परेशां
दरीचे से वो काफ़ की सी तिलिस्मी निगाहें
मुझे आज फिर झाँकती हैं
ज़माना जहाँ-ज़ाद वो चाक है जिस पे मीना ओ जाम ओ सुबू
और फानूस ओ गुल-दान
कि मानिंगद बनते बिगड़ते हैं इंसाँ
ये तो साल जो गम के क़ालीब में गुज़रे !
हसन कूज़ा-गर आज इक तोदा-ए-ख़ाक है जिस
में नाम का असर तक नहीं है
जहाँ-ज़ाद बाज़ार में सुभ अत्तार युसूफ
की दुकान पर तेरी आँखें
फिर इक बार कुछ कह गई हैं
उन आँखों की ताबिंदा-शोखी
से उठी है फिर तोदा-ए-ख़ाक में नम की हल्की सी लर्ज़िश
यही शायद उस ख़ाक को गिल बना दे !
तमन्ना की वुसअत को किस को ख़बर है जहाँ-ज़ाद लेकिन
तू चाहे तो बन जाऊँ मैं फिर
वही कूज़ा-गर जिस के कूज़े
थे हर काख औ कू और हर शहर ओ क़रिया की नाज़िश
थे जिन से अमीर ओ गदा के मसाकिन दरख़्शां
तमन्ना की वुसअत की किस को खबर है जहाँ-ज़ाद लेकिन
तू चाहे तो मैं फिर पलट जाऊँ उन अपने महजूर कूजों की जानिब़
गिल-ए-विला के सूखे तग़ारों की जानिब
मईशत के इज़हार-ए-फ़न के सहारों की जानिब
के मैं इस गिल-वला से इस रंग ओ रोग़न
से फिर वो शरारे निकालूँ के जिन से
दिलों को ख़राबें हों रौशन !