हाँ, तुम्हें अपना बनाना चाहता हूँ / चंदन द्विवेदी
जिस गति से चल रही साँसें तेरी आजकल
उस गति का, उस हुनर का साथ पाना चाहता हूँ
अब मुझे कालिख से कुछ इश्क़ ऐसा हो गया है
मैं तुम्हारी आँख का काजल चुराना चाहता हूँ
मैं हूँ चन्दन, साँप लिपटेंगे मगर बेफ़िक्र रह
साँस का हर एक कण तुझ पर लुटाना चाहता हूँ
मैं तुम्हें प्रतिपल बताना चाहता हूँ
हाँ, तुम्हें अपना बनाना चाहता हूँ
मैं तुम्हारी आहटों का अंश लेकर
ख्वाब को भी सच बनाना चाहता हूँ
मैं तुम्हारे शाख से दो फूल लेकर
प्रेम की बगिया सजाना चाहता हूँ
बिखरे बिखरे गेसुओं का गंध पाकर
मोगरे को भी जलाना चाहता हूँ
हाँ तुम्हें अपना बनाना चाहता हूँ
हाँ तुम्हीं से मुस्क़ुराना चाहता हूँ
समर में हो पर तुम्हारी जय रहेगी
हार कैसी जीत की बस लय रहेगी
कठिन पल का अंत होगा देख लेना
विजयश्री की पटकथा भी तय रहेगी
बस जरा संघर्ष है कुछ ही दिनों का
मैं तुम्हें फिर से जगाना चाहता हूँ
हाँ तुम्हीं से मुस्कुराना चाहता हूँ
हाँ तुम्हें अपना बनाना चाहता हूँ
हर जगह कुछ लोग होंगे जानता हूँ
व्यंग्य होगा हर घडी मैं मानता हूँ
पर तुम्हारे सामने वो दीन होंगे
अपनी हारों पर ही वे ग़मगीन होंगे
वे शलभ से जल मरेंगे पास आकर
आग ऐसी मैं जलाना चाहता हूँ
मैं तुम्हें सूरज बनाना चाहता हूँ
मैं तुम्हारे प्रेमपन में ही रहूंगा
सांस की सिलवट बिछाना चाहता हूँ
हाँ तुम्हें अपना बनाना चाहता हूँ
हाँ तुम्हीं से मुस्क़ुराना चाहता हूँ