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हाँ मैं भी ग़लती करता हूँ मैंने कब इन्कार किया है / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

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हाँ मैं भी ग़लती करता हूँ मैंने कब इन्कार किया है।
मैं भी आदम का बच्चा हूँ मैंने कब इन्कार किया है।

जब गुस्से में हूँ, तीख़ा हूँ, मैंने कब इन्कार किया है।
जब आँसू हूँ, तो खारा हूँ मैंने कब इन्कार किया है।

अनुभव के आगे बच्चा हूँ मैंने कब इन्कार किया है।
बचपन के आगे बूढ़ा हूँ मैंने कब इन्कार किया है।

मज़्लूमों का ख़ून चलाता है जिन यंत्रों को उनका ही,
मैं भी छोटा सा पुर्ज़ा हूँ मैंने कब इन्कार किया है।

दफ़्तर से घर, घर से दफ़्तर, ऐसे सभ्य हुआ हूँ मैं भी,
लेकिन मन का बंजारा हूँ मैंने कब इन्कार किया है।

मज़्लूमों की ख़ातिर मन में दर्द बहुत है फिर भी ‘सज्जन’,
तन की सुविधा का चमचा हूँ मैंने कब इन्कार किया है।