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हाइकु 104 / लक्ष्मीनारायण रंगा
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संस्कृति तो है
जीवण रा संस्कार,
बिगाड़ा आपां
मरणो तय
छिण-छिण डर‘र
पै‘ला क्यों मरै?
भेटा भी हुवै
निजरां भी मिलै है
मिलां कठै हां?