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हाइकु 80 / लक्ष्मीनारायण रंगा
Kavita Kosh से
मिनख देही
माटी सूं है उपजी
राख समासी
आखरी सांस
निकळै थारै नाम
अमर हुयो
नदी री धार
सागै-सागै बै, नीं तो
डूब जावै ला