भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हाइकु 80 / लक्ष्मीनारायण रंगा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मिनख देही
माटी सूं है उपजी
राख समासी


आखरी सांस
निकळै थारै नाम
अमर हुयो


नदी री धार
सागै-सागै बै, नीं तो
डूब जावै ला