भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हाइकु 83 / लक्ष्मीनारायण रंगा
Kavita Kosh से
ओ जगत है
रात भर बसेरो
थारो न म्हारो
ओ समंदर
उतार लायो चांद
धरती माथै
कित्ता बस्या है
मिनख में मिनख
खुद नीं जाणै