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हाथों में यें तो उम्र के प्याला बक़ा का था / उर्मिल सत्यभूषण

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हाथों में यें तो उम्र के प्याला बक़ा का था
घेरे हुये था जो उसे, साया कज़ा का था

मंज़िल करीब आई तो वो दे गया दग़ा
राहें वफ़ा में साथ किसी बेवफ़ा का था

उस मोड़ पर जिधर से गुज़रना था झूम कर
मंज़र तो दिल फ़रेब थे, ख़तरा बला का था

ज़ख़्मों को सेंकते रहे हम जिससे उम्र भर
दर्दों की पोटली में असर तो दवा का था

सींचा जो आंसुओं से वो लगने लगे हंसीं
सपनों में रूप-रंग मेरी कल्पना का था

बैसाखियों को छोड़कर चलने की ठान ली
इस फ़सले में हौसला मेरी अना का था

दर खोलकर जो देखा तो कोई न था वहाँ
‘दस्तक जो दे रहा था, वो झोंका हवा का था’

पत्थर के शहर में भी मैं पत्थर न हो सकी
शायद कमाल यह मेरी कविता कला का था

मैं रेत की दीवार हूँ, छेड़ों न दोस्तो
पुख़्ता लगी, यह बांकपन उर्मिल अदा का था।