हाथ / बाजार में स्त्री / वीरेंद्र गोयल
सुबह होते ही झाडू लगाते
भट्ठी या अँगीठी जलाते
चाय का पानी चढ़ाते
घर-घर अखबर पहुँचाते
ये हाथ
मेहनतकशों की शान हैं
दिन के चढ़ने के साथ-साथ
हाथ को हाथ बढ़ाते
यात्री बसें चलाते
ट्रकों में माल पहुँचाते
हथठेलों को धकियाते
सड़क किनारे खोमचा सजाते
सस्ता खाना उपलब्ध कराते
पानी पिलाते
गन्ने का रस बनाते
गुड़ के कड़ाहे में करछुल चलाते
ये हाथ
मेहनतकशों की शान हैं
ये हाथ।
हाँ, ये हाथ
हमें दे दो मजूरे
ताकि कोई श्रम न कर पाये
ताकि कोई
बाजुओं की मछलियाँ न फड़फड़ाये
ताकि श्रमशक्ति लुंजपुंज हो जाये
ये हाथ
हमें दे दो मजूरे
ताकि विरोध में उठने वालीं
मुट्ठियाँ ना तन पायें
ताकि कोई हथौड़ा
साम्राज्यवादियों के सिर मंे
न बज पाये
ताकि मशीनें ही हाथ बन जायें
ये हाथ
हमें दे दो मजूरे
ताकि सभी बन जायें सभी जमूरे
फिर ये खेल और जमेगा
ना तुम विरोध मंे
ना तुम क्रोध मंे
अपने हाथ लहरा पाओगे
ना ही अपने आँसू पोंछ पाओगे
और बढ़ जायेगा खारापन
पर इस खारेपन में
और श्रम के नमक में
बड़ा फर्क होगा
ये तो जख्मों पर छिड़के
नमक की तरह चिलचिलायेगा
उस खारेपन की तरह
कहाँ मुस्करायेगा।