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हाय! ये कैसी सदी है बेख़बर / राम नाथ बेख़बर

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हाय! ये कैसी सदी है बेख़बर
बाख़बर है ग़म, ख़ुशी है बेख़बर

रौशनी के पाँव में हैं बेड़ियाँ
रक़्स करती तीरगी है बेख़बर

ग़ैर के ग़म में भी हो जो ग़मज़दा
अब कहाँ वह आदमी है बेख़बर

राम की गंगा ही बस मैली नहीं
हर नदी में गंदगी है बेख़बर

यूँ तो हैं शायर कई इस बज़्म में
एक बस तेरी कमी है बेख़बर