हाय-हाय ये मज़बूरी, ये मौसम और ये दूरी, मुझे पल-पल है तड़पाए
तेरी दो टकियाँ दी नौकरी, मेरा लाखों का सावन जाए
कितने सावन बीत गए, बैठी हूँ आस लगाए
जिस सावन में मिले सजनवा, वो सावन कब आए
मधुर मिलन का यह सावन हाथों से निकला जाए...
प्रेम का ऐसा बँधन है, जो बँध कर फिर न टूटे
अरे नौकरी का है क्या भरोसा, आज मिले कल छूटे
अम्बर में है रचा स्वयंवर, फिर भी तू घबराए...
फ़िल्म : रोटी, कपड़ा और मकान (1974)