हारिल की लकड़ी (गीत) / दीनानाथ सुमित्र
तुम मेरी हारिल की लकड़ी
त्यागूँ जगत, न तुम्हें त्यागना
प्रीत सरोवर हूँ, पानी है
तरह-तरह के कमल िखले हैं
जो भी मेरे गीत बने हैं
सब तुमसे होकर निकले हैं
तुम हो तो सारा हल मुमकिन
क्यों बाधा से मुझे भागना
तुम मेरी हारिल की लकड़ी
त्यागूँ जगत, न तुम्हें त्यागना
पीर पराई अपनी-सी है
जगत अश्रु मेरे नयनों में
अपनी खातिर क्या में चाहूँ
जग ही है मेरे बैनों में
मैंने तो सीखा है तुमसे
सारे जग की खुशी माँगना
तुम मेरी हारिल की लकड़ी
त्यागूँ जगत, न तुम्हें त्यागना
तुम क्या हो, सिद्धांत नियम हो
जो सारे जग को समझाता
तुम सँग जीकर खुशियाँ पाई
मैं लोगों को यही बताता
मैंने सुख की खूँटी टांगी
जग को है दुख वहीं टांगना
तुम मेरी हारिल की लकड़ी
त्यागूँ जगत, न तुम्हें त्यागना