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हाल उस शहर का / गुलाम नबी ‘नाजिर’

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उस शहर का क्या कहूँ
दाने बिखरे
कोयलख्, कबूतर,बुलबुल, तोते, मैना
कोंच कोंच कर कीचड़ थके हुए
चील के पंजों में चूज़ा एक लटका छटपटाता
वायु पर चादर फूलों की
शाख पे पटका कौए का पंख
नौकाओं में भर भर कर जल ढोया जा रहा
झाड़ी ने जड़ों तले फूल बिखेरे
रीछ भोगते चिनार की शीतल छाँव का सुख
पात्रों में जल भर भर कर सोतों में भरा जा रहा
नदियों मेें धूप डुबकियाँ लेता
स्वयं पेड़ छाया की अपेक्षा करते
चंद्रमा को दामन तले समो लिया है अँधियारे ने
तारों पर रात हुई भारी
दिन ढूँढ़ रहा हे थल थल पर सूर्य अभी
चुप्पी ने वक्षस्थल में भरी पुकारें
हर आवाज़ सुने ख़ामोशी
मेघों ने रो रो कर गोदी में पाला है वर्षा को
बादल को, नभ छोर ने, भर लिया है मुँह में
 अँधेरा से रहा प्रकाश को पंखों के नीचे
छाया आँखों से दुलारती रोशनी को
हिम के गालों में घर कर लिया चिंगियों ने
ठंडक में ताप दुखी है
घिरा हुआ है
पाले ने मुँह ढक लिया है धूप का
राह ढूँढ़ रही पदचिह्नों में अपने पदचिह्न
अभिव्यक्ति मुँह फेरे बैठी
पर्दे के पीछे ग़ायब है
अनुहार आँखों ही आँखों में है
मन रंजित करता
रूप तो ग्रसित है
मेरे इन शब्दों पर बलि जाना
जब देखो हाल हमारा

शब्दार्थ
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