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हाशिया / शिरीष कुमार मौर्य

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मुझे हाशिए के जीवन को कविता में लाने के लिए पहचाना गया -–
ऐसा मुझे मिले पुरस्‍कार के मानपत्र पर लिखा है
जिस पर दो बड़े आलोचकों और दो बड़े कवियों के नाम हैं

उस वक्‍़त पुरस्‍कृत होते हुए
मैं देख पा रहा था हाशिए पर भी नहीं बच रही थी जगह
और रहा जीवन तो उसे हाशिए पर मान लेना मेरे हठ के खिलाफ़ जाता है
मैंने पूरे पन्‍ने पढ़े थे
उन पर लिखा बहुत कुछ ग़लत भी पढ़ा था
मैंने उस ग़लत पर ही सही लिखने से शुरूआत करने की छोटी-सी कोशिश की थी
हाशिया मेरे जीवन में महज इसलिए आया था
क्‍योंकि पहाड़ के एक कोने में मेरा रहवास था और कोने अकसर हाशिए मान लिए जाते हैं
बड़े शहर पन्‍ना हो जाते हैं

मैं दरअसल लिखे हुए पर लिख रहा हूँ अब तक
यानी पन्‍ने पर लिख रहा हूँ
साफ़ पन्‍ना मेरे समय में मिलेगा नहीं
लिख-लिखकर साफ़ करना पड़ेगा

कुछ पुरखे सहारा देंगे
कुछ अग्रज मान रखेंगे
कुछ साथी साथ-साथ लिखते रहेंगे
तो मैं लिखे हुए पन्‍नों पर भी कविता लिख कर दिखा दूँगा

कवि न कहलाया तो क्‍या हुआ
कुछ साफ़-सफ़ाई का काम ही अपने हिस्‍से में लिखा लूँगा ।