भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हाशिया / हरे प्रकाश उपाध्याय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

1

लिखने से पहले
निकाल देता हूँ हाशिए की ज़गह
हाशिए से बाहर
लिखता चला जाता हूँ

पूरे पृष्ठ में कोरा
अलग से दिखता है हाशिया
मगर हाशिए को कोई नहीं देखता
कोई नहीं पढ़ता हाशिए का मौन

हाशिए के बाहर
फैले तमाम महान विचार
लोगों को खींच लेते हैं
खींच नहीं पाती हाशिए की रिक्ति
किसी को...

2

एक कवि जब हाशिए के बाहर
व्यक्त कर लेता है अपना विचार
हाशिए के बारे में भी
लिख लेता है अपनी कविता

और नहीं मिलती उसे कोई जगह
तो आकर
हाशिए में लिखता है अपना नाम
एक बार फिर...