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हिज़्र ओ-विसाल / ब्रजेन्द्र 'सागर'

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फ़ज़ाओं को फिर वजह सी मिल गयी महकने की
अफसुर्दा<ref>उदास</ref>बादलों में से चाँद फिर मुस्काराया है
तख़्लीक़<ref>रचनाएँ</ref>में मेरी फिर आने लगे हैं शोखियों के दम
लबों पे फिर कोई मस्त नगमा उभर आया है

फिर से गाता है मल्हार साज़े जीस्त मेरा
फिर से छाई है तख्य्युल पे आरज़ुओं की घटा
झूमती बल खाती है बर्क उम्मीदों की
फिर से वफ़ा के ज़र्द आरीज़ों<ref>गाल</ref>में नूर बहा

मेरी तन्हाई भी सोई है आज उमरों के बाद
मैं खुद से भी मिला हूँ बाद मुद्दत के
दर्द की आँखों में भी है आज मर्सरत<ref>खुशी</ref>के आँसू
तमन्ना को मिले फिर से पैरहन<ref>लिबास</ref>हक़ीकत के

शब्दार्थ
<references/>