हिज्र-ए-जानाँ में जी से जाना है / मरदान अली ख़ान 'राना'
हिज्र-ए-जानाँ[1] में जी से जाना है
बस यही मौत का बहाना है
क्यूँ न बरसाएँ अश्क दीदा-ए-तर[2]
आतिश-ए-इश्क़[3] का बुझाना है
हो अदू[4] जिस पे कीजिए एहसान
कुछ अजब तरह का ज़माना है
याद दिलवा के दास्तान-ए-विसाल[5]
आशिक़-ए-ज़ार[6] को रुलाना है
रख दिला[7] रोज़-ओ-शब उमीद-ए-विसाल[8]
रंज-ए-फुर्क़त[9] अगर भुलाना है
जान जाती है जिस जगह सबकी
उसी कूचे में अपना जाना है
कोई दम[10] मैं अदम[11] को हूँ राही
आ अगर तुझको अब भी आना है
ख़ाकसारी[12] न छोड़ना 'राना'
एक दिन ख़ाक ही में जाना है
(1. प्रियतमा से जुदाई; 2. नम आँखें; 3. प्रेम की अग्नि; 4. दुश्मन; 5. मुलाक़ात की दास्तान; 6. रुआँसा आशिक़; 7. दिल; 8. मुलाक़ात की उम्मीद; 9. जुदाई का ग़म; 10. क्षण; 11. परलोक/दुनिया के बाद का जीवन; 12. मिट्टी से जुड़ाव/विनम्रता)