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हिन्दी-आचार्य-त्रयी / जितेन्द्रकुमार सिंह ‘संजय’

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चिन्तामणि घोष की पवित्र कामना के साथ,
इण्डियन प्रेस की ज़मीन बड़ी पाक थी।
बैठा बैसवारे का सुकवि बन कुम्भकार,
वहीं चलने लगी सुकविता की चाक थी।
भाषा और व्याकरण हेतु टकसाल सिद्ध,
राष्ट्रमाता हिन्दी की जो सुन्दर-सी नाक थी।
महावीर का प्रसाद दिव्य पाने के ही बाद,
जग बीच हो गयी 'सरस्वती' की धाक थी॥

सुकवि सनेही की थी निर्विवाद राय यह,
गुरुओं के गुरु भी थे चेले जिनके अनन्य।
हिन्दी-नागरी गुणागरी-सी करके सिँगार,
देवभाषा सँग बैठी बनकर काव्यजन्य।
महाकवियों का उपहार कविता को दिया,
अवदान जिनका न आज भी अनुमन्य।
पण्डित प्रवीण थे सुपारखी थे महावीर,
जिनकी कृपा से हुई हिन्दी आज धन्य धन्य॥

सरवार की प्रसिद्ध 'राप्ती' के किनारे बसा,
ऋषिवर 'गर्ग' का पुनीत 'भेंड़ी' ग्राम है।
देवभाषा कवि पंक्तिपावन स्वनामधन्य,
'सोमदत्त शुक्ल' का वहीं पवित्र धाम है।
सोमदत्त के सुपुत्र 'चारुदत्त' सुप्रवीण,
तस्य 'भगवानदत्त शुक्ल' शुभ नाम है।
भगवानदत्त के चतुर्थ पुत्र ' शिवदत्त,
उनसे ही 'चन्द्रबली' -गौरव ललाम है॥

'सरयू नदी' के तट 'कलवारी' के समीप,
'बस्ती' का 'अगौना' ग्रामतीर्थ-सा पवित्र है।
'चन्द्रबली शुक्ल' का है बीता बाल्यकाल वहीं,
वहीं बना शुक्ल-वंश 'विश्वनाथ' -मित्र है।
वेद-वसु-सिद्धि-चन्द्र ईशा अब्द की पुनीत,
आश्विन की पूर्णिमा को बना दिव्य चित्र है।
पश्चिम की कोठारी जो घर में अगौना के थी,
वहीं 'रामचन्द्र' का रचा गया चरित्र है॥

विन्ध्याचल की ललित मेदिनी के मध्य बसा,
मिर्ज़ापुर नाम का शहर एक आला है।
'प्रेमघन' -से रसिक 'बंगमहिला' 'केदार' ,
'सेठ महादेव' का विकास 'मतवाला' है।
श्रेष्ठ काव्यालोचक के भव्य लोकमंगल के,
बीज को प्रसन्न इसी भूमि ने ही पाला है।
नागरी प्रचारिणी सभा के 'शब्दसागर' को,
'रामचन्द्र' ने बनाया 'शब्द का शिवाला' है॥

बल थे अदृश्य 'श्यामसुन्दर' की लेखनी के,
कविता-कला की अभिव्यक्ति बतलाये थे।
भारती की कण्ठमाला-शोभा को बढ़ाने हेतु,
'चिन्तामणि' रत्न से सुमन को सजाये थे।
हिन्दी हेतु 'भरत' 'रिचर्ड्स' दोनों साथ साथ,
समालोचना का दिव्य ध्वज फहराये थे।
तुलसी के ऋण को चुकाने के लिए ही मानो,
प्रभु रामचन्द्र ख़ुद शुक्ल रूप आये थे॥

रजनी-दिन नित्य चले अविराम
अनन्त की गोद खेले सदा।
चिरकाल न वास कहीं भी किये
रहे आँधी से नित्य धकेले सदा।
न थके न रुके न हटे न झुके
रहे फक्कड़ बाबा के चेले सदा।
कवि-लेखक सिद्ध हज़ारी रहे
थे द्विवेदी प्रसाद अकेले सदा॥

बलिया से चले शुचि शान्तिनिकेतन
काशी की भूमि बुलाती रही।
जब काशी में आ विरमे क्षण एक
शिवालिक श्रेणी लुभाती रही।
अनुरक्ति-विरक्ति का द्वन्द्व न था
उर भारती गीत सुनाती रही।
गुरुता शिवता को लिये निज अंक
हज़ारी को झूला झुलाती रही॥

'हिन्दी के साहित्य की है भूमिका' रची समग्र,
'आदिकाल' का 'प्रवाह' बना है 'कबीर' तक।
'कल्पलता' 'कुटज' 'अशोक के प्रसन्न फूल' ,
व्याख्या औ' गवेषणा है शुद्ध क्षीर-नीर तक।
'नाथ सम्प्रदाय' औ मृत्युंजय रवीन्द्र' श्रेष्ठ,
'रासो' और 'रासक' कथा न है शरीर तक।
'आत्मकथा' 'चन्द्रलेख' 'पोथा' औ पुनर्नवा' की,
कड़ियाँ जुड़ी हुई हैं 'नावक के तीर' तक॥