हिमालय और हमारी सभ्यता / बाल गंगाधर 'बागी'
तुम्हारे आंसुओं से कितनी नदियां बहने लगी हैं
हमारी संस्कृति की मिटी जब दास्तान1 सुनी हैं
तुम्हारे घाटियों की पीड़ा कितनी गहरी होती है
जिसकी तलाश में सरितायें शिलायें खोद रही हैं
कभी ये नदियां तेरी मृदुलता पे तान देती थीं
बालों में सज के फूलों की ओसों से ढकती थीं
नहा के ओस में पावन हृदय की रागनी क्या थी
वनस्पति सर पे ओढ़े कोटि हिमखण्डों की चादर थी
बहक जाये छटा में गर कहीं का बावला न हो
सुगंधित मलय की धरती से आयी हवा भी हो
हिम की चोटियों में फूल मालाआंे की घाटी थी
रही प्रसन्नचित परम्परा यहाँ के मूलनिवासी की
तुम्हारे रक्त में व्यापकता है, औषधियां यहाँ की
सब मीठे जल की शुद्धता हैं, नदियां यहाँ की
मोल वनस्पति मेखला का कोई, कर नहीं सकता
सहज प्रवृति चित गंभीर है, श्यामलता यहाँ की
तुम्हारे गोद में पलके जीवन का राग पाये हैं
हिम की छाया में दासता की न धूप खाये हैं
आज वो दिन उल्लास भरा उत्सव नहीं रहा
जहाँ शासक बन समता का दीप जलाये हैं
अनन्त गगन से ऊंची अस्मिता मूलनिवासी की
हृदय गंभीर थी बौद्धिकता में सागर सी गहराई
मिट्टी उपजाऊ मैदानों की अनमोल जौहर सी
जिसके कणों में कंठ बोलता सोने की पक्षी की
उसी धरती की गोद में आज मन कुंठित होता है
हिमालय मूलनिवासी धरा का जब ह्रास होता है
तुम्हारे सामने मेरे सभ्यता की, बस नींव बाकी है
इसीलिए तुम्हारे सामने, मन दुश्मन से बाग़ी है