हिमालय के प्रथम दर्शन / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'
सामने-पाताल-सी गहराइयाँ;
फिर उनमें से क्रमशः उभरतीं
देवदार के पेड़ों की घनी कतारें-
दृष्टि के विस्तार-जैसी लम्बी;
फिर, ऊपर भूरे-कत्थई रंग की उभरतीं शैल-श्रेणियाँ;
फिर, सिलहटी-नीली शैलश्रेणियों की सीमान्त तट-रेखाएँ;
और सब से परे, आगे ऊपर-
गिरिराज के अधरों की हल्की-गाढ़ी हँसी-
बर्फ़ीली, शुभ्रोज्जवल!
और ऊपर, चमकीले विराट् गोल-सुडौल
उलटे कटोरे-से लटके नीलाकाश में-
झीनी-श्वेत मेघ जालियाँ, मलमली चादरें, तार-तार फटीं;
कहीं दूध लुढक गया है, कहीं चाँदनी के वर्क़-से उड़ रहे;
हिमालय गंभीर निद्रा में लीन है, मौन रहो,
विक्षेप न करो-कैसे-कैसे सपने आ रहे हैं!
शांति...
लो, वे नींद में मुस्कराये-देवता...
देवदारुओं की ठंडी छायाएँ,
उनींदी हवाएँ,
मरकत-सी हरियालियाँ!
रोमा´्च! आत्म-विस्मृत मैं!