भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हिमालय / चन्द्रकुंवर बर्त्वाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कविता का एक अंश ही उपलब्ध है । शेषांश आपके पास हो तो कृपया जोड़ दें या कविता कोश टीम को भेज दें

हिमगिरि के शिखरों पर
हिम की रेखा पतली
शेष रही अब और कगारों में
कुछ निचली
और गई रेखाएँ हिम की
खाकी नीली
हिमविहीन हैं इन्द्र नील
मणियों का टीला
गए मेघ वर्षा के अम्बर से गिरि के
हिम जल से गंभीर
किनारे कर सरि-सरि के
हंस-सूर्य फिर पर्वत पुंज अनेक पार कर
हँसता जैसे पथिक सुख भरे गृह में आकर