भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हिलती कहीं / परमानंद श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
हिलती कहीं
नीम की टहनी !
भूल गईं वे बातें कब की
सब जो तुम को कहनी ।
गन्ध वृक्ष से छूटी-छूटी
चलीं हवाएँ कितनी तीखी
मार रही हैं कैसे ताने
कहती हैं-
कैसी-अनकहनी !
हिलती कहीं
नीम की ट-ह-नी !