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हीरों की बस्ती में हमने काँच ही काँच बटोरे हैं / मधुरिमा सिंह
Kavita Kosh से
हीरों की बस्ती में हमने काँच-काँच बटोरे हैं,
कितना लिखा फ़साना फिर भी सारे काग़ज़ कोरे हैं ।
झरबेरी की ख़ुशबू जैसी खट्टी-मीठी यादों में,
नीबू, इमली, कैथा, कमरख, कच्चे आम टिकोरे हैं ।
बचपन के बस्ते में मैंने ख़्वाब छुपाकर रक्खे हैं,
एक टूटी गुड़िया माटी की, कुछ टूटे दीप सकोरे हैं ।
नफ़रत से जलती दुनिया को प्यार के गीत सुनाएँगे,
ख़ुशबू बिखराते चलते हम चन्दन पवन झकोरें हैं ।
देखो कैसी सोंधी-सोंधी ख़ुशबू इनसे आती है,
आँखों की कच्ची मिटटी के दीपक नए नकोरे हैं ।