हुतात्मा शब्द / दिनेश कुमार शुक्ल
साधु का अस्थान पर्वत पर
गुफा आकाश में लटकी
जहाँ पर आँधियाँ रहतीं
जहाँ छाया नहीं पड़ती
कभी बादल चले आते टहलते
और वर्षा की झड़ी के साथ
बिजली चमकती घुसती गुफा में
साँप की-सी जीभ...
भाग कर छुपते बिलों में मूस-चूहे
पंख टकराते हुए पक्षी अँधेरे के
जीर्ण-शीर्ण टुकड़े आकाश के
यदा-कदा आ गिरते गुफा में
कटी पतंगों और घायल पक्षियों के साथ
युग पर युग बीत गये
साधु साधे मौन निर्जल-निराहार
सो चुके थे देह के सब तन्त्र
सिर्फ आँखें जागती थीं
एक अविकल जागरण था दृष्टि का
दृष्टि के संवेग से
काँप उठती थीं दीवारें गुफा की
नहा उठती कभी आँखों की सजलता से
अग्नि-सी तपती कभी उस दृष्टि में
कभी नीली ग्लेशियर की बर्फ-सी
थे अचंचल आँख के नीलम
उत्तरोत्तर प्रखर होती ज्योति...
गुफा के भीतर के दिन
भिन्न थे सूर्य वाले दिनों से
बेहद मनमौजी, निमिष भर कभी
कभी युग-युग भर
बिना रात आये ही
ख़त्म होता एक दिन दूसरा शुरू होता,
नहीं कहीं कोई सन्धि
कहीं नहीं कोई सन्ध्या
कुछ दिन से
दिनों में अजब तनाव, उमस, कम्प
सर्पाकुल-सघन-चन्दन-वन-का-सा अन्धका
साधु का सहज मन
सहज-सहज ही असहज,
जान गयी गुफा भी
साधना के शिखर पर कुच्छ नहीं
शून्य तक नहीं
समझ गयी गुफा अब
फूटा ही चाहता है साधु का कठिन कंठ
भर आता बार-बार
किन्तु अवरुद्ध धार
साधु के निकट आते-आते शब्द टूट जाते
साधु का असह्य तेज
टूट-टूट शब्द झरने लगे
गुफा में भरने लगे
खंडित महानताएँ-निर्मितियाँ-मूर्तियाँ
टूटी सम्पूर्णता अनन्तता चूर-चूर
अनुभव-संवेदन-अनुमान सब खंड-खंड
साकार निराकार ज्ञात अज्ञात सब विखंडित
टूटा हुआ देश-काल
चूर्ण-चूर्ण चराचर
जावत ब्रह्मांड का सर्वस्व
खिंचा चला आता था खंड-खंड...
भरती जाती थी गुफा जगह खत्म
मलबे में साधु भी समाधिस्थ
चमकतीं यदा-कदा आँखें
बादलों से झाँकता ज्यों सूर्य भाद्रपद का
खो दिया गुफा ने अपना आकाश
अन्तरंग खो दिया
कि तभी
उड़ता हुआ आया अपूर्व एक शब्द
और सिद्धि की सीमा पर पहुँचकर फट गया
ध्वनिहीन विस्फोट
बुबुद् वृहदाकार
फैलता ब्रह्मांडी अंडकोष
फूलता गुब्बारा
छँट गया गर्दो-गुबार
उड़ गया सब मलबा
आदि अन्त मध्य अस्ति नास्ति सब...
अब केवल गुफा का निर्मल आकाश था
और था साधु के कंठस्वर का प्रकाश
कल-कल करता झरना
जन्म ले रहा था अभिनव संसार
गुफा में मुस्काये अभिनव गुप्त
पूरे हजार साल बाद
तत्त्व, भाव, नाद, शब्द, जीवन, स्त्री-पुरुष, सब अभिनव...
मात्र एक शब्द की शहादत से
अजसिरे-नौ फिर शुरू हुई कायनात
ज्ञान-अभिज्ञान-विज्ञान की विद्युत् से
स्पन्दित नवजीवन....
जानती है केवल गुफा ही
ढाई आखर के हुतात्मा शब्द का रहस्य
जो हृदय की तरह फट पड़ा था
सिद्धि के सोपान पर
सोपान जो तराशे गये गुफा की देह को काट-काट
साधु कैसे जान पाते
अपनी निष्फलता के गूढ़ आनन्द को
कैसे जान पाते वे अपने ही मौन की गुह्यता!