हुस्न-ए गुमराह / ज़िया फतेहाबादी
मुझ को मालूम है तू हुस्न में लासानी है
सारी दुनिया तेरी सौदाई है दीवानी है
तेरी आँखों में है कैफियत ए जाम ए मयनाब
सौ बहारों का है आईना तेरा हुस्न ए शबाब
रुख़ ए रंगीं से तेरे फूल भी शरमाते हैं
सामने आते हुए डरते हैं कतराते हैं
काली जुल्फें तेरी लहराती हैं जब शानों पर
बिजलियाँ कौंधती हैं इश्क़ के ईवानों पर
मुस्कराती है तो गौहर से लुटा देती है
मीठी आवाज़ से फ़ितरत को जगा देती है
नूर पाती हैं ज़माने की निगाहें तुझ से
रोशन उम्मीद ओ तमन्ना की हैं राहें तुझ से
नौजवानी से भी तेरी मुझे इनकार नहीं
मैं मगर तेरी मुहब्बत में गिरफ़्तार नहीं
कुछ भी हो मुझ को नहीं हुस्न के ये तौर पसंद
मेरी तखैयुल को है रंग कोई और पसंद
देखना मुझ को कनखियों से तेरा ठीक नहीं
और क्या है जो ये हुस्न की तज़हीक नहीं
हर सहेली से मेरा ज़िक्र किया करती है
मुझे पैग़ाम मुहब्बत के दिया करती है
उँगलियों से मेरी जानिब ये इशारे तेरे
खूब मालूम हैं धोके मुझे सारे तेरे
तुझ को दरअसल मुहब्बत से नहीं कोई लगाव
तेरी दानिस्त में सब कुछ हैं सिंघार और बनाव
तू मुझे किस लिए बदनाम किया करती है
और रुसवा सहर ओ शाम किया करती है
मेरी ग़ैरत जो कभी जोश पर आ जाएगी
हुस्न ए गुमराह को रस्ते पे लगा लाएगी