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हुस्न का अपने न दुनिया को तमाशाई कर / जावेद क़मर
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हुस्न का अपने न दुनिया को तमाशाई कर।
इस तरह मेरी मुहब्बत की न रुस्वाई कर।
सर-ए-मेहफ़िल तिरे जल्वों पर नज़र है मेरी।
अपने जल्वों की अता मुझ को तू रानाई कर।
इस तरह और भी हो जाएँगे गहरे ऐ दोस्त।
दिल के ज़ख़्मों की ज़रा ठीक से तुरपाई कर।
दर्द के मारों का हर्गिज़ न उङा आज मज़ाक़।
वक़्त का है ये तक़ाज़ा कि मसीहाई कर।
हौसला तू ने हमेशा ही मिरा तोङा है।
आज तो वक़्त मिरी हौसला-अफ़ज़ाई कर।
मार डाले न कहीं मुझ को मिरी तन्हाई।
या ख़ुदा मुझ को अता अंजुमन-आराई कर।
भाई के नाम से हो जाए मुझ को नफ़रत सी।
इस क़दर भी न सितम मुझ पर मिरे भाई कर।
अहले-दानिश ही समझते हैं 'क़मर' इल्म की बात।
सब पर ज़ाहिर न कभी अपनी तू दानाई कर।