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हे, प्रभो! / मनोज कुमार झा
Kavita Kosh से
यह युद्ध इतना विषम
नोचे इतने पंख
लूटते रहे मेरे दिन की परछाइयाँ
कुतरते रहे मेरी रात की पंखुरियाँ
चितकबरा लहू थूकता यह अंधकार
फिर भी छूटा वो कोना निपट अकेला
जहाँ बसे हैं विकट दुर्गुण मेरे खास।