हे कविकुलगुरु, हे संन्यासी (निराला के प्रति) / नागार्जुन
(निराला के प्रति)
हे दधीचि ! तुमसे घबराते हैं मांधाता,
नहीं पूछते तुमको भारत भाग्य विधाता,
मुदित देवगण, किन्तु तुम्हारा तप जारी है,
जन - जीवन आलोड़ित, अद्भुत्त लाचारी है ।
वह चाटुकार - दल से घिरा इन्द्र आज मुस्का रहा,
तुम जला किए हो रात - दिन, लाभ किन्तु उसका रहा ।
लोग दुखी हैं, अन्न-वस्त्र का है न ठिकाना,
लालकिले से टकराता है नया तराना,
नए हिन्द का नया ढंग है, नीति निराली,
मुट्ठी भर लोगों के चेहरों पर है लाली,
हे नीलकण्ठ, चुपचाप तुम युग की पीड़ा पी रहे,
बस, नई सृष्टि की लालसा लिए कथंचित जी रहे ।
हे कविकुलगुरु, हे महिमामय, हे संन्यासी !
तुम्हें समझता है साधारण भारतवासी,
राज्यपाल या राष्ट्र - प्रमुख क्या समझें तुमको,
कुचल रहीं जिनकी संगीनें कुसुम - कुसुम को !
सुखमय, कृतज्ञ, समदृष्टि वह जनयुग जल्दी आ रहा,
इस मिट्टी का कण - कण सुनो, गीत तुम्हारे गा रहा ।