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हे दयामय! दीनबन्धो! दीन को अपना‌इये / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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हे दयामय! दीनबन्धो! दीन को अपना‌इये।
डूबता बेड़ा मेरा मझदार पार लँघा‌इये॥
नाथ! तुम तो पतितपावन, मैं पतित सबसे बड़ा।
कीजिये पावन मुझे मैं शरणमें हूँ आ पड़ा॥
तुम गरीब-निवाज हो, यों जगत सारा कह रहा।
मैं गरीब अनाथ दुःख-प्रवाहमें नित बह रहा॥
इस गरीबीसे छुड़ाकर कीजिये मुझको सनाथ।
तुम-सरीखे नाथ पा, फिर क्यों कहाऊँ मैं अनाथ ?॥
हो तृषित आकुल अमित प्रभु! चाहता जो बूँद-नीर।
तुम तृषाहारी अनोखे उसे देते सुधा-क्षीर॥
यह तुम्हारी अमित महिमा सत्य सारी है प्रभो!।
किसलिये मैं रहा वचित फिर अभीतक हे विभो!॥
अब नहीं ऐसा उचित प्रभु! कृपा मुझपर कीजिये।
पापका बन्धन छुड़ा नित-शान्ति मुझको दीजिये॥