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हे प्रानप्रिय साथी / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’

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हे प्राणप्रिय साथी,
आज रिमझिम रात में
प्रिया मिलन के साध लेले
कहाँ चल देलऽ
आज के रिमझिमी रात में
तहार अभिसार बा का?
आज आकाश
हतास होके रो रहल बा।
हमरा आँखी नींन कहाँ?
दरवाजा खोलले
तहरे बाट जोह रहल बानीं
हे प्रियतम, हे प्राणप्रिय साथी!
बाहर-त कुछुओ नइखे लउकत,
तहरा लगे कवन राह जाई?
बइठल इहे सोच रहल बानीं
हे प्रियतम, हे प्राणप्रिय साथी।
कहाँ चल गइलऽ तूं?
दूर कवनो नदी किनारे?
आकि घनघोर कौनो जंगल में?
कुच-कुच करिय अंहरिय क
आड़ में त ना चल गइलऽ तूँ?
कहाँ चल गइलऽ हे प्राण-प्रिय साथी?