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हे प्रिया, और भी सुन तू भाँति-भाँति की / कालिदास

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नन्‍वात्‍मार्न बहु विगणयन्‍नात्‍मनैवावलम्‍बे
     तत्‍कल्‍याणि! त्‍वमपि नितरां मा गम: कातरत्वम्।
कस्‍यात्‍यन्‍तं सुखमुपनतं दु:खमेकान्‍ततो वा
     नीचैर्गच्‍छत्‍युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण।।

प्रिये! और भी सुनो। बहुत भाँति की
कल्‍पनाओं में मन रमाकर मैं स्‍वयं को धैर्य
देकर जीवन रख रहा हूँ। हे सुहागभरी, तुम
भी अपने मन का धैर्य सर्वथा खो मत
देना।
कौन ऐसा है जिसे सदा सुख ही मिला
हो और कौन ऐसा है जिसके भाग्‍य में सदा
दु:ख ही आया हो? हम सबका भाग्‍य पहिए
की नेमि की तरह बारी-बारी से ऊपर-नीचे
फिरता रहता है।