हे यन्त्री! तुम मुझे बना लो यन्त्र तुम्हारा, सर्वाधार!
अपना कुछ भी रहे न मुझमें, मिटें सभी अभिमान-विकार॥
जो कुछ हो फिर, सभी तुम्हारे ही मनका हो मेरा कार।
भर जायें अणु-अणुमें मेरे सभी तुम्हारे गुण-आचार॥
जहाँ निराशा हो छायी, मैं करूँ वहाँ आशा-संचार।
जहाँ विषाद भरा हो, भर दूँ वहाँ अलौकिक हर्ष अपार॥
जहाँ अमित अपराध, करूँ मैं वहाँ क्षमाका शुचि विस्तार।
जहाँ अँधेरा छाया, मैं प्रकटा दूँ वहाँ प्रकाशागार॥
जहाँ वैर-विद्वेष, जोड़ दूँ वहाँ प्रेमका पावन तार।
जहाँ भरा हो भय पद-पद ड्डैला दूँ वहाँ अभय अनिवार॥
जहाँ भोग रति अति हो, कर दूँ वहाँ विरतिमय सब व्यवहार।
जहाँ भरा अजान, खोल दूँ वहाँ जानका मैं भण्डार॥
करूँ सभी, पर करूँ न कुछ भी जड पुतलीकी भाँति असार।
एक तुम्हारी ही लीलाकी हो अभिव्यक्ति अनेक प्रकार॥