भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हे विहंगिनी / भाग 9 / कुमुद बंसल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

81
नदिया बहे
गहन वादियों में,
गुनगुनाती,
झर-झर बहती,
चंचल चपल-सी।

82
सुनती हूँ मैं,
टपकती ओस के
निःशब्द गीत,
चंचल दु्रम-धुन,
पावस गुनगुन।

83
ओस की बूँद,
मिट्टी में मिल घुली,
मिट्टी ही हुई,
नदी जल में मिल,
जा पहुँची जलधि।

84
रूप-शृंगार
हैं लहरें सागर,
बड़ी आकुल
छूना चाहे किनारे,
हृदय है व्याकुल।

85
जलोर्मि ओढ़
सागर-तट पर
लेटी रहूँ मैं,
निर्विचार होकर
कोमल रेत पर।

86
उत्सव चले
ऋृतुओं का जग में
भागीदार हूँ,
तूफानों में पलती
तपिश से जलती।

87
सप्त सागर
भरे मेरे भीतर,
मैं ना कातर,
भर सिन्धु अँजुरी
सुँघूँ जल-मँजरी।

88
पिसी औ' घुली
कानन-मन उगी,
महकी सजी
है सौभाग्यवर्धिनी,
लाली कल्याणी रची।

89
शरदेन्दु का,
निर्झर झरनों का,
रसभीना-सा
है महारास रचा,
रसमुग्धता बसा।

90
बोली पवन,
बिखराती सुगन्ध
पहुँचूँ नभ,
उसमें भर दूँ प्राण
मैं क्षण-प्रतिक्षण।