हे स्वामी! अनन्य अवलबन / हनुमानप्रसाद पोद्दार
हे स्वामी! अनन्य अवलबन, हे मेरे जीवन-आधार।
तेरी दया अहैतुकपर निर्भरकर आन पड़ा हूँ द्वार॥
जाऊँ कहाँ जगतमें तेरे सिवा न शरणद है कोई।
भटका, परख चुका सबको, कुछ मिला न, अपनी पत खोई॥
रखना दूर, किसीने मुझसे अपनी नजर नहीं जोड़ी।
अति हित किया-सत्य समझाया, सब मिथ्या प्रतीति तोड़ी॥
हुआ निराश, उदास, गया विश्वास जगतके भोगोंका।
जिनके लिये खो दिया जीवन, पता लगा उन लोगोंका॥
अब तो नहीं दीखता मुझको तेरे सिवा सहारा और।
जल-जहाजका कौआ जैसे पाता नहीं दूसरी ठौर॥
करुणाकर! करुणाकर सत्वर अब तो दे मन्दिर-पट खोल।
बाँकी झाँकी नाथ! दिखाकर तनिक सुना दे मीठे बोल॥
गूँज उठे प्रत्येक रोममें परम मधुर वह दिव्य स्वर।
हृान्त्री बज उठे साथ ही मिला उसीमें अपना सुर॥
तन पुलकित हो, सु-मन जलजकी खिल जायें सारी कलियाँ।
चरण मृदुल बन मधुप उसीमें करते रहें रंगरलियाँ॥
हो जाऊँ उन्मा, भूल जाऊँ तन-मनकी सुधि सारी।
देखूँ फिर कण-कणमें तेरी छबि नव-नीरद-घन प्यारी॥
हे स्वामिन्! तेरा सेवक बन तेरे बल होऊँ बलवान।
पाप-ताप छिप जायें हो भयभीत मुझे तेरा जन जान॥