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हैं दिये इम्तहान पहले भी / ज्ञान प्रकाश पाण्डेय
Kavita Kosh से
हैं दिये इम्तहान पहले भी,
भूख थी मेहमान पहले भी।
इतनी खुशफ़हमियाँ नहीं पालो,
दे चुका है बयान पहले भी।
जख़्मख़ुर्दा लहू-लहू साँसें,
थी यही दास्तान पहले भी।
पहले भी कीमतें चुकाई हैं,
तल्ख़ थी ये ज़ुबान पहले भी।
मेरे मिट्टी के घर पे हाँ ! यूँ ही,
हँसते थे ये मकान पहले भी।
क्या यहाँ हो रहा नया साहिब,
था खफ़ा आसमान पहले भी।
अब भी पीछे उसी सराब के हूँ,
तिश्ना लब था ये 'ज्ञान' पहले भी।