हैरानी / आशा कुमार रस्तोगी
हसीँ गुलनाज़-ए-मन्ज़र, अभी भी, याद में क्यूँ है,
सिफ़त, अदबो-हुनर उसका, अभी भी ख़्याल मेँ क्यूँ है।
चला जाता हूँ मैं, मानिन्दे-अफ़सूँ, किसकी जानिब अब,
अजब-सा ताल्लुक़, सरगोश सी, आवाज़ से क्यूँ है।
सुरुरे-निकहते-लबरेज़, दिलकश-सी फ़ज़ाँ है क्यूँ,
सबा का शोख़पन, दोशीज़गी भी गुमान पर क्यूँ है।
मुहब होता हूँ मैं ये, किस फ़रिश्ते-नाज़ पर अब भी,
हसीँ पैकर कोई यूँ, क़ातिले-आमाल पर क्यूँ है।
गज़ब ढाने को अबरो-ख़म, लगी काफ़ी नहीं थीं क्या,
तबस्सुम का निशाना, फिर मेरी ही जान पर क्यूँ है।
मयस्सर हैँ जो मुझको तल्ख़ियाँ, सारे ज़माने की,
लबे-शीरीँ-ए-पिनहा, ज़हर ही फिर, प्यास मेँ क्यूँ है।
हैं आमादा कई साए, मुहीबाँ, सँग चलने को,
उरज-तौफ़ीक़, कोई हमसफ़र सा, साथ में क्यूँ है।
ज़रो-दौलत न है मुझपे, न ही हूँ क़स्र-ए-हासिल, पर,
किसी की नज़र, बस मेरे ज़मीरे-माल पर क्यूँ है।
अज़ाबोँ की है बस्ती, कुछ नक़ाबे-रु-ए-पोशीदा,
किसी की जुस्तजू मेँ, दिल मेरा, अरमान पर क्यूँ है।
बराहे-ज़ीस्त, हरसूँ तीरगी थी, इक बियाबाँ सी,
मिरे आगोशे-आमादा, मनव्वर-शाद ये क्यूँ है।
छुपा रक्खा था होठों से भी, अब तक राज़ जो, दिल ने,
मिरी चाहत का चर्चा, अब ज़ुबाँ-ए-आम पर क्यूँ है।
हुए हैराँ जो, आलम बेख़ुदी का, सर हुआ "आशा" ,
अक़ीदा अब भी मुझको, ज़ीनते-नायाब पर क्यूँ है...!