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है इख़्तियार में तेरे न मेरे बस में है / प्रेम कुमार नज़र

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है इख़्तियार में तेरे न मेरे बस में है
वो एक लम्हा जो औरों की दस्त-रस में है

वो मुँह से कुछ नहीं कहता कि पेश ओ पस में है
बदन का कर्ब तो ज़ाहिर नफ़स नफ़स में है

अगरचे शोर बहुत कूचा-ए-हवस में है
वो क्या करे कि जो चालीसवें बरस में है

करेगा कौन उसे साज़िश बदन में शरीक
जो शख़्स क़ैद अभी रूह के क़फ़स में है

उठो कि फिर हमें इज़्न-ए-सफ़र मिले न मिले
अभी तो लुत्फ़-ए-सदा नाला-ए-जरस में है

उसे पसंद कि वो टूट कर गिरा वर्ना
शजर में क्या नहीं होता जो ख़ार ओ ख़स में है